बचपन को गलियों में... बचपन में डर नाम की कोई जिच ही नही होती थी। लेकिन जबसे उम्र में बड़े हुवे है तो कभी हारने का डर है तो कबी जितने का डर है, पैसा नही है तो डर है पैसा है तो डर है, सच बोलू तो डर है झूट बोलू तो डर है। हर रोज एक नए डर के साथ शुरवात होती है और रात भी डर के मारे ही गुज़रती है। वैसे में बचपन ही एक ऐसा दौर होता था जिसमे किसी बात का डर नही था सिवाय किसी कक्षा में असफ़लता मिलने के। जब स्कूल में पढ़ते थे तो स्कूल से बीच की छुट्टी में ही भाग जाते और भागकर कोई गलत काम नही सिर्फ़ नदी में तैरने जाते थे। जबकि हम में से एखाद को ही तैरना आता था फ़िर भी इस बात का डर नही था कि हम कही पानी मे डूब न जाएं। स्कूल से निकलते ही ठामकर निकलते थे कि तैरना आये या ना आये बस तैरना है। कई बार नदी में पानी छोड़े हुवे दो दिन भी नही हुवे होते हम तैरने पहुच जाते। वैसे में हम में से सब के सब एक ना एक बार डूबते डूबते बचे है लेक़िन फ़िर भी तैरने के लिए फ़िरसे जाते थे। आज उन नदियों से न जाने कितनी बार पानी बहकर निकल गया नदी के कितने किनारें पानी के प्रवाह से कटते गए और उम्र बहते पानी के साथ बहती गयी बची रही बस वह बचपन की यादें बिना डरे तैरने की। तुषार पुष्पदिप सूर्यवंशी।

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