आंदोलन की समाप्ति। दिनांक 7 अक्तूबर के शाम की ओ बात है जब में मेरी दोस्त को वर्धा स्टेशन को छोड़ के वापस विश्वविद्यालय आ रहा था। तब रास्ते मे मुजे एक अपाहिज युवा ने हात दिया और आगेतक आनेकी मदत मांगी मैने बे झिझक उसको अपनी गाड़ी पर बिठा लिया। थोड़ी देर बात उसने मुजसे बात की ओ बोला भैया कुछ काम होंगा तो बोलना! में जल्दी में था इसलिए मैंने ध्यान नही दिया लेकिन पोहोचने में टाइम था इसलिए मैंने भी उस्से वार्तालाप शुरू कर दिया। शुरवात में तो मैंने ये कहकर बात टाल दी कि में यहां का रहनेवाला नही हु। फिर भी अगर होता है तो में आपको कहदूँगा। ये कहकर मैं शांत हो गया फिर वो बोला में दसवीं कक्षा तक ही पढ़ा हु सब काम कर लेता हूं। यही रहता हूं वर्धा में फिर मेने अपना मौन खोला जैसे हमारे देश की राजनीति जब चाहे खोल देती है जब चाहे मौन कर लेती है। मैंने बड़े स्वाभिमान भरे शब्दो मे कहा पेट्रोलपंप पर देख लेना शायद मिल जाएगा। उसके पास मोबाइल तक नही था मैंने अपना मोबाईल नंबर उसे एक कार्डपर लिखकर दे दिया और कहा कि मेरे छात्रावास के रूम न. 26 में आकर मिलना में पूछता हूं अपने दोस्त से। मैने वैसे ही उसे आश्वाशन दे दिया जैसे हमे आजादि के 70 साल से मिलते आ रहे है। बाद में मुजे खुदपर हसी आगई जो ख़ुद बेरोजगार है वो दूसरे को रोजगार उपलब्ध करवाएगा। क्योकि मेरी समस्या भी वही थी जब्बी कोई युवा 15 साल की उमर से बड़ा हो जाता है तब उसकी सबसे बड़ी समस्या होती है रोजगार की समस्या हा ओ बात अलग है कि हमारे आजाद देश मे 5 साल से ज्यादा उम्र के बच्चे भी अपना पेट भरने के लिए काम करते है जिसे हम शिक्षित लोग बालमजदूरी कहते है। और 5 साल से ज्यादा काम करने वाले कोनसे बच्चों को हम बाल मजदूरी के दायरे में रखेंगे ये भी अपने आप मे एक सवाल है। क्योंकि रेल में गाना गाकर पैसा मांगना भी एक काम ही है। रास्तेपर सर्कस करके पैसा कमाना भी तो एक काम है। तो फिर हम कौनसे बच्चों को बालमजदूरी कानून के दायरे में रखेंगे? हालांकि बाल मजदूरी के लिए बना कानून का कोई मतलब ही नही है क्योंकि हम उनको बाल मजदुरी से रोख तो सकते है लेकिन उनका पेट भरे ऐसी पर्याप्त व्यवस्था नही बना सकते। तो रोजगार की पेठ भरने की समस्या सिर्फ उम्र से बड़ा, या सिर्फ पुरुषों की या शिक्षित इंसान की ही नही है। बल्कि हर उस इंसान की है जो खाली पेट, नँगा बदन, खाली हात या बिना छत के बैठा है। फिर उसमें महिला-पुरुष, तृतीय पंथी, युवा-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, सब आते है। मुजे याद है महाराष्ट्र के जलगाव जिल्हे में जब मेरी डिगरी की पढ़ाई चल रही थी आखरी साल लगभग ख़त्म हो चुका था आगे की पढ़ाई को लेकर में परेशान था। उसही दौरान जलगाव के महानगरपालिका के चुनाव नज़दीक आ गए थे पूरे जलगाव में जल्दही आश्वासनो की बारिश होने वाली थी और फिर से दादा, भाई, मामा जैसे लोग चुनाव लड़ने वाले थे। उसही वक्त मेरे साथ काम करनेवाले ऊमर में मुजसे बड़े हमारे साथी ने एक मीटिंग भरवाई उस मीटिंग में तय हुवा की जलगाव की रोजगार की परिस्थितियो को देखते हुवे हम इस चुनाव में सारे बेरोजागर युवाओं को इकट्टा कर चुनाव लड़ने वाले पहले से सत्त्ता में है उनसे या फिर जलगाव के पूंजीपतियों को सवाल पूछेंगे जलगाव में पढ़नेवाला युवा रोजगार के लिए पुणे, मुंबई, नाशिक जैसे शहरों में जाकर रोजगार करता है। तो फ़िर जलगाव में क्या ऐसे कारण है जिसके वजह से रोजगार उपलब्ध नही है ऐसे कई सारे सवालों को लेकर हमारे हरबार मार्गदर्शन रहे हुवे मार्गदर्शकोसे बात कर सलाह लेकर एक रणनीति तैयार कर तै हुवा की इस तारीख को हम बेरोजगार हुंकार मार्च निकालेंगे। ये कोई नई बात नही थी कि बेरोजगारी इस मुद्दे को लेकर आंदोलन नही हुवे हो राजनीति नही हुवे हो संस्था स्थापित नही हुवी हो सबकुछ हुवा है लेकिन हुवा ओ नही जिससे रोजगारी बड़ सखे, में तो उस वक्त किस हेतु से उस आंदोलन में था ये आजतक मुजे पता नही चला क्योंकि पूँजीवाद को विरोध करने वाला, यांत्रिकीकरण को नकारने वाला कैसे मांग कर रहा था कि जलगाव में कारखानों की स्थापना करो, जो बंद है उसको शुरू करवाओ में उसवक्त समज नही पाया शायद रोजगार की आवश्यकता को पहचानकर हो या लहू खोल रहा था इस इसलिए हो में शामिल था। भरि बारिश में जलगाव के कई इलाकों में जाकर युवाओं से बात की। स्पर्धा परीक्षा करने वाले सारे युवा से जाकर बात हुवी। कई जगहपर मीटिंग रखी अपने मुद्दे को समजाया उनको समजलिया पत्रक तैयार कर लोगो मे बाट दिए। लेकिन अपने देश के युवा अपने हक्क के लिए अगर रस्तेपर उतर जाएंगे तो में मान जाऊ रातको देरतक जागकर साथी के घर ही फ़लख तैयार किये और जैसा तय हुवे मुताबिक़ आंदोलन का दिन आया सबेरे 10.30 बजे सारी तैयारी के साथ हम पोहोंचगये जैसा सोचा था कि 30 लोगो के ऊपर कोई नही आएगा वैसा ही हुवा और बारिश में बेरोजगार हुंकार मार्च निकला जिसमे बेरोजागर तो थे लेकिन हुंकार नही था घोषणा देते हुवे ज़िलाधिकारी दप्तर तक पोहोचकर हर बार जो होता है वही हुवा ज़िलाधिकारी को आवेदन दिया नाही उसका कुछ असर उस चुनावपर हुवा नाही बेरोजगार युवाओं पर हुवा नाही पूंजीपतियों पर हुवा और नाही कबि होने वाला था। और आंदोलन की स्थगिति होनी थी उसके बजाए आंदोलन की समाप्ति हुवी। हमारे साथ साथ हमारे फ़लख भी चिल्ला रहे थे इनको आजादि दे दो, हम आजाद हो जायेगे।
तुषार पुष्पदिप सूर्यवंशी समाजकार्य छात्र महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा।

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