महिला और तृतीय पंथि का किरदार. साथियो आज में एक ऐसे विषय पर लिखने जा रहा हु। जिसे पढ़कर आप शायद मुझे औरत का दर्जा दे सकते हो। या शायद मेरा मजाक उड़ा सकते हो वैसे भी हमारे समाज मे औरतो का मजाक ही उड़ाया जाता है उनको हमेशा कम समजा जाता है। अगर कोई औरत कह दे कि में अधिकारी बनाना चाहती हु या कह दे कि में पुरुषोसे हमेशा आगे ही रहती हूं। तो उसका मजाक उड़ाया जाता है। समजा जाता है कि वो कुछ कर नही सकती पुरुषो के आगे जा नही सकती। जबकि औरोतो की अपनी एक अलग पहचान होती है अपना एक अलग अस्तित्व होता है उसे पुरूषों से जोड़कर देखना यानी उनको कम समजने जैसा है। चलो छोड़ो उसपर अलग तरीकेसे लिखा जा सकता है। में अपने एक अनुभव के साथ शुरवात करता हु। में हमारे मु.जे. महाविद्यालय जलगाव में मानसशास्त्र इस विषय मे पदवी की शिक्षा ले रहा था तब हर किसी के महाविद्यालय में वार्षिक स्नेह संमेलन होता है वैसे हमारे महाविद्यालय में हुवा था तब उसमें लगभग दो साल मेरे दो दोस्तों के साथ मेने स्री(औरत) का पात्र निभाया था जिसमे एक साल सिर्फ दो औरत और दूसरे साल दो औरत और उसका एक पति जिसमे मेरा नाम था चंचला और दूसरी का नाम था मंचला इस तरह से हमने औरत का क़िरदार निभाया था। वो सभ करणे का हमारा एक अलग उद्देश्य था लेकिन उस उद्देश्य की वजह से जो हुवा वो कुछ गलत ही था ऐसा आज मुझे लगता है। जैसे कि हमने उस किरदार में एक पति दो पत्नियां को बढ़ावा दिया था जोकि बोहोत गलत था क्योंकि हमारे समाज मे पुरुषों को दो पत्नियां करने का अधिकार होता था और अब भी किसी समाज मे होता होगा लेकिन औरतो को वैसा अधिकार नही था और नाही है। वैसे तो सब अधिकार पुरुषों को ही थे लेकिन आगे चलकर कई समाज क्रांतिकारकोंने उसको रोका उसके खिलाप आवाज उठाई जैसे कि सती प्रथा, विधवा पूनर्विवाह, और भी सारी घृण प्रथा सिर्फ महिलाओं के लिए थी जो अब बंद हुवी है बंद हुवी है ऐसा कहने से अच्छा हम ऐसा कह सकते है कि उसका स्वरूप बदल चुका है। तो उस दो पत्नियों वाली मानसिकता को हमने पुनर्जिवित किया था वो कैसे किया था उसपर अलग से लिखा जा सकता है। उसके बाद हमने तृतीय पंथियों को ट्रेडिशनल बनाकर रख दिया था जो कि तृतीय पंथी ट्रेडिशन न होकर हमारी तरह इंसान है लेकिन खुद के मनोरंजन और स्नेहसमेलन को एक रंग देने के लिए हमसे उसका उपयोग हुवा था जो कि गलत था। लेकिन उस दौरान दो साल औरत बनने की वजह से हमे औरत का रहन सहन के बारे में जानकारी मिली। किस तरह से औरत के ऊपर सौंदर्यशास्र हावी हुवा है उसका प्रत्यक्ष अनुभव हुवा। उस किरदार की वजह से हमे औरत का रहना किस तरह से कठिन होता है वो समजमें आ गया। उस दोनों औरत और तृतीय पंथी के किरदार की वजह से हमे पता चला कि उनके तरफ पुरुष प्रधान संस्कृति किस नजरिया से देखती है। क्योकि जब हम पहले साल तृतीय पंथी बने थे तब तैयारी करके हैम जब बाहर निकले तो सारे युवाओं का लक्ष्य हमारी तरफ था हर कोई हमारे साथ फोटो खिंचवाना चाहता था एसा बर्ताव कर रहे थे मानो हम इंसान न होकर कोई दूसरे ग्रह से आये हो। कोई हमारे कमर में हात डाल देता तो कोई कह देता रात को आ जाना। उस अनुभव से हमे अंदाज आ गया किस तरह से तृतीय पंथी अपना जीवन व्यथित करते है। उनके दुःखो के बारे में लिखना कहना अलग से हो सकता है। फिर हमें लगा कि उनके बारे में पढ़ना और उनके जैसे एक दिन जीवन व्यथित करना दोनों अलग बाते है। उस दौरान हुवा यू की मेरे साथ जो मेरे दोस्त ने किरदार किया था उसको अपने नजदीकी दोस्तो से घर से बोहोत डाट पड़ी थी कि क्या कुछ भी करता रहता है। फिर वो मेरा दोस्त कभी उस किरदार में नही आया और नही आएगा। ये हुवा तृतीय पंथियों के बारे में लेकिन जब हम अगले साल औरत के किरदार में गाये तो उस अनुभव से जो सीखा उससे एक अलग नजरिया बन गया औरतो की और देखने का। इस साल हमने पूरी तैयारी के साथ किरदार किया था लेकिन हम कितनी भी तैयारी कर ले कभी औरत नही बन सकते क्योंकि औरत जो सहती है जो जीवन व्यतीत करती है वो शायद ही कोई कर पाए। इसमे गर्व करने जैसी कोई बात नही क्योकि वो सब उसको इस व्यवस्था के तहत सहना पड़ता है जीना पड़ता है अगर कोई अपनी तरह मतलब स्वतंत्र मील हुवे अधिकारों के साथ जीना भी चाहे तो नही जी पाती यातो उसे मार दिया जाता है या बलात्कार कर दिया जाता है। और एक मिसाइल खड़ी की जाती है उन औरतो के सामने जो व्यवस्था तोड़ने की कोशिश करेगी। हमने पूरी तैयारी के साथ ओ किरदार किया फिर उस किरदार के बाद हमने जो सीखा वो कभी न भूलने जैसा होगा। खासकर में उनपर टिपण्णी करना चाहता हु जो संस्कृति के नामपर कहते है कि आज की युवती आज की पीढ़ी अपनी संस्कृति छोड़कर पाश्चिमात्य संस्कृति अपना रहे है। जिसमे वो पंजाबी ड्रेस की बजाए जीन्स औऱ शर्ट/टीशर्ट्स में रहती है। गले मे मंगल सूत्र नही पहनती है। पैरो में पायल, हातो में चुडिया नही पहनती है। उस पाश्चिमात्य संस्कृति अपनाने से जीन्स पहने से पुरुषोंकी भावनाओ को उकसाती है और बलात्कार को बढ़ावा मिलता है। तो ये कहती है हमारी संस्कृति जो सिर्फ औरतो को लागू होती है पुरुषों को नही औरतो को शादी के बाद साड़ी पहनी चाहिए, मंगलसूत्र पहनना चाहिए, सिन्दूर लगाना चाहिए जो एक लायसन्स की तरह काम करती है जैसे मंगलसूत्र, सिन्दूर, चुड़िया ये सारी चीजें दर्शाती है कि औरत शादी शुदा है कोई नजर ना डाले ये हमारी अमानत है इसपर हमारा यानी एक ही पुरुष का अधिकार है। कबिक़बार खुद लड़किया इसे मजाक में बोल डालती है और उसका समर्थन कर देती है। उसमे उसकी गलती है ही नही क्योकि समाज रचना कुछ इस तरह से बनी है जो ऐसा सोचने में मजबूर कर देती है में तो कहूंगा ये समाज रचना व्ययस्था को प्राकृतिक बना देती है और हम उसे स्वीकार कर लेते है। तो जो सारे रीति रिवाज है संस्कृति है वो सिर्फ महिलाओं के लिए है किसी पुरुष को ऐसा लायसन्स या परमिट नही होता है जिस्से समज आये की ये शादीशुदा है। ना उसको मंगल सूत्र है, ना माथे पे टिकली है, ना सिन्दूर है, ना हात में चुड़िया है, ना पाओ में पायल है। महिला संस्कृति के तहत साड़ी पहने तो पुरुष भी संस्कृति के तहत धोती कुर्ता पहने। तो पुरुषों को हर तरीके से आजादी है और औरतो को नही पुरुषो के पेन्ट को शर्ट को जेब होती है महिलाओं के साड़ी को नही होती या पंजाबी ड्रेस को भी नही होती। ऐसे बोहोत सारे अधिकार है या बोहोत जादा मुभा है जो सिर्फ पुरुषों को है औरतो को नही। तो ये हमारी पुरुष प्रधान संस्कृति है जिसके तहत महिला चलती है अगर ना भी चलती हो तो उसका प्रमाण भारी मात्रा में नही है। और है भी तो हर जगह नही हॉफीस में है तो घर नही, घर मे है तो बाहर नही, पार्टी में है तो शादी में नही। जिस वक्त हमने औरत का किरदार निभाया था उस वक्त हमपर इतना मेकअप चढ़ाया गया था कि उसके बाद दो दिनतक चेहरे में जलन हो रही थी। साड़ी पहनना, कान के झुमके, हात में चुड़िया, गले मे मंगलसुत्र-माला, और अंदर और बाहर की सारी चीजे जिसे महिला हर रोज पहनकर जीती है वो हम एक पूरा दिन भी नही पहन सखे तो वो औरते कैसे पहनती होगी कैसे सहती होगी ये एक औरत ही जान सकती है। हम नही या वो नही जो नाटिका के समय औरत का किरदार निभाते है या वो नही जो औरत को संस्कृति के पाठ पढ़ाते है। एक महिला/औरत/लडकिया अपने आप मे अलग होते है अपना अलग अस्तित्व होता है। वैसे ही तृतीय पंथी इनका अपना अलग अस्तित्व रहता है। साथ मे ही औरत और तृतीय पंथी सबसे पहले इंसान है उनके साथ इंसान जैसे बर्ताव किया जाए, सबको समान रूप से देखा जाए. तुषार पुष्पदिप सूर्यवंशी. suryawanshitushar41@gmail.com

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