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Showing posts from March, 2019
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बचपन को गलियों में... बचपन में डर नाम की कोई जिच ही नही होती थी। लेकिन जबसे उम्र में बड़े हुवे है तो कभी हारने का डर है तो कबी जितने का डर है, पैसा नही है तो डर है पैसा है तो डर है, सच बोलू तो डर है झूट बोलू तो डर है। हर रोज एक नए डर के साथ शुरवात होती है और रात भी डर के मारे ही गुज़रती है। वैसे में बचपन ही एक ऐसा दौर होता था जिसमे किसी बात का डर नही था सिवाय किसी कक्षा में असफ़लता मिलने के। जब स्कूल में पढ़ते थे तो स्कूल से बीच की छुट्टी में ही भाग जाते और भागकर कोई गलत काम नही सिर्फ़ नदी में तैरने जाते थे। जबकि हम में से एखाद को ही तैरना आता था फ़िर भी इस बात का डर नही था कि हम कही पानी मे डूब न जाएं। स्कूल से निकलते ही ठामकर निकलते थे कि तैरना आये या ना आये बस तैरना है। कई बार नदी में पानी छोड़े हुवे दो दिन भी नही हुवे होते हम तैरने पहुच जाते। वैसे में हम में से सब के सब एक ना एक बार डूबते डूबते बचे है लेक़िन फ़िर भी तैरने के लिए फ़िरसे जाते थे। आज उन नदियों से न जाने कितनी बार पानी बहकर निकल गया नदी के कितने किनारें पानी के प्रवाह से कटते गए और उम्र बहते पानी के साथ बहती गयी बची रही बस
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बचपन की गलियों में... बचपन मे सीखी हुवी कुछ चीजे इंसान जिंदगी भर नही भूलता फिर वह नदी में तैरना हो, खेल से जुड़ी चीज हो कोई गीत हो या फ़िर पेड़पर चढ़ना हो। कभी नही भूलता क्योंकि वह पूरे मन से की जाती थी उसमें अपनी ख़ुद की खुशियां होती थी। बचपन मे स्कूल से बीच मे ही भागकर कभी नदियों में तैरना होता था तो क़भी आम के मौसम में आम के पेड़पर चढ़ना। फ़िर आम तोड़कर उसको नमक लगाकर खाया जाता था तब नाही ख़ासी होती थी नाही गला ख़राब होता था क्योंकि वह बचपना था। क़भी क़भी आम के पेड़ का मालिक देख लेता तो पीछे भागता था तब बड़ी मुसीबत होती थीं लेक़िन उस वक़्त पेड़पर कितने भी ऊपर क्यो ना हो कूद जाते थे और भागते थे। तब नाही पैर में चोट आती थी नाही क़मर में चमक उठती थी। लेक़िन जबसे उम्र से बड़े हुवे है मानों यह सब चीजें छूट सी गयीं है वैसे में आज अगर पेड़पर चढ़ने का नदी में तैरने का मौका मिल जाये तो उसको छोड़ नही पाते है। 🌳🌳🌳🏊🏊🏊 तुषार पुष्पदिप सूर्यवंशी
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क्या आप इनसे मिले हैं? आइए, आपको इनसे मिलवाता हूँ। वैसे इनका नाम तो मुझे भी पता नहीं लेकिन अक्सर इनकी चर्चा हर जगह मैंने सुनी है। सबसे पहले संविधान बनाते समय संविधान सभा मे सुनी। उसके बाद यही चर्चा 26 नवंबर, 1949 को संविधान को बनकर तैयार होते हुए दिखी। लेकिन फिर 1949 से लेकर आज 2019 तक मैंने उन पर हर बार चर्चा होते हुए सुनी है। सवाल तो यह है कि इनको लेकर कहाँ पर चर्चा नहीं हुई, हर जगह पर मैंने इनको लेकर चर्चा होती देखी। कभी लोक सभा में तो कभी राज्यसभा में, कभी न्यायपालिका में तो कभी उच्च न्यायपालिका में, कभी चुनावी प्रचार में तो कभी नेताओं की सभा में, कभी अख़बारों में तो कभी चाय के ठेले पर। कभी-कभार तो मैंने इनको लेकर होने वाली चर्चा को चाय के ठेले से उठकर दिल्ली की सड़कों तक जाते देखा है। सवाल यह भी है कि इस चर्चा से आखिर होता क्या है? तो मैंने सुना है कि इनको लेकर होने वाली चर्चा कभी सरकार गिराती है तो कभी सरकार बनाती है। कभी पार्टी को मज़बूत बनाती है, तो कभी कमजोर बनाती है, कभी संगठन बनाती है, तो कभी संगठन को ही पार्टी बना देती है। ख़ैर अब ज्यादा सब्र न करते हुए आपको उनसे मिला ही देता